दादा की कहानी पोती की जुबानी
स्वतंत्र भारत में पैदा होने का सुख भले ही आज की पीढ़ी की समझ से बाहर की चीज हो पर एक पीढ़ी पहले तक जन्मे
लोग इसके महत्व से परिचीत अवश्य हैं
क्योंकि उन्हें यह दिन दिखाने के लिए उनके बाप दादाओ ने जो कुर्वानिया दी थीं, वे उन्हें याद हैं , मैं स्वतंत्र भारत में पैदा होने वाली पहली
पीढ़ी हूँ .पापा परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़ी भारत माता की औलाद हैं ,उनके
पिताजी यानि मेरे दादा जी स्वतन्त्रता
आन्दोलन के एक सशक्त कार्यकर्ता थे .
व्यक्ति को जो सहज प्राप्य होता है ,उसका
सुख ,उसका महत्व उसे आड़ोलित नहीं करता लेकिन मुझे करता है क्योंकि मैं दादा जी की
आँखों से देखने का प्रयत्न करती हूँ .
बिहार के दरभंगा जिले के एक छोटे से गाँव कछुआ चकौती में उनका जन्म हुआ था
.माता पिता की इकलौती संतान सो भी पुत्र रत्न ,कई पीढ़ियों से एक ही संतान की
परम्परा चली आ रही थी .कहते हैं किसी योगी का श्राप था .यही कारण है कि गाँव के
बाकि घरों के टुकड़े होते गये ,हमारे पूर्वजों के पास ऐसी समस्या आई ही नहीं ,बँटबारे का झंझट ही नहीं
हुआ .गाँव के बीचो बीच बड़े से जमीन के टुकड़े में बड़ी सी कोठी थी हमारी ,खेत थे
,खेत जोतने वाले मजदूर थे,घर संभालने के लिए एक पूरा परिवार था ,एक मैनेजर था जो
इन सब लोगों का काम देखने के लिए था सो घर के किसी भी सदस्य को काम करने की कभी
जरूरत ही नहीं पड़ी .बहुत हुआ तो मैनेजर से थोडा बहुत हिसाब किताब ले लिया बस और
थोडा बहुत संस्कृत पुराणों का अध्ययन -अध्यापन . ऐसे परिवेश में किशोरवस्था को
प्राप्त करते हुए दादा जी ने गुलामी का
सही अर्थ समझा तथा उन्हें
अपने देश की गुलामी का भान हुआ ,पीड़ा हुई और वे घर से छुप छुप कर आन्दोलन में हिस्सा लेने
लगे और अपने पिता के देहांत के बाद खुलकर सक्रिय रूप से आन्दोलन में भाग लेने लगे
.गर्म दल में होने के कारण जब तब पुलिस गाँव आकर पूछताछ करने लगी .
उन दिनों गाँव में काफी एकता थी ,कोई भूल
से भी उनके बारे में नहीं बताता ,इतना ही नहीं जिस किसी को भी पुलिस के आने की भनक
लगती ,वे अपना सारा काम छोड़कर कोसों दूर दौड़कर उन्हें बता देते और दादा गाँव छोड़
देते .
एक संतान की परम्परा टूटी और उनके दो बच्चे हुए बड़े मेरे ताऊ जी उनसे
छोटे मेरे पापा .यों तो पापा उस वक्त निरे
बच्चे थे पर थे बड़े निर्भीक .एक बार अंग्रेज दादा को खोजने आये पूरे घर की तलाशी ली,
जाते वक्त घर का कीमती सामान सहेजने लगे
तो पापा ने चिल्लाकर कहा “तुम्हारा घर नहीं है क्या ? दूसरे के घरों को लूटने वाले लूटेरे ,चोर . पिताजी
होते तो मजा चखाते .” एक अंग्रेज ने उनपर निशाना साध लिया पर दूसरे को दया आ गई और
उसने कहा “ ही इज जस्ट ए चाइल्ड .लीभ हिम .” इतने में ताऊ जी घसीट कर
उन्हें कमरे के भीतर ले गये और दादी ने कई तमाचे जड़ दिए .
दिनों दिन दादा का आतंक बढ़ता गया
,उनका निशाना अचूक था .अंग्रेजों के कई आफिस दादा और उनके साथियों ने जला दिए , कई
अंग्रेज आफिसरों की गोली मारकर हत्या कर दी . जितना उनलोगों का उपद्रव बढ़ता गया अंग्रेज
सरकार उतनी ही सख्त होती गई .
अब तक सिर्फ दादा की ही तलाशी होती स्त्रियों एवं बच्चों को घर के आँगन में
बैठा दिया जाता था और पुलिस कर्मी उनके साथ कोई बदसलूकी नहीं करते थे . एक बार
दादा गाँव में ही थे पुलिस ने पूरे गाँव को चारों तरफ से घेर लिया ,तब दादा ने एक
कीमती लाल दुल्हन वाली साड़ी लपेट ली और औरतों
के झुण्ड में घूंघट काढ कर बैठ गये ,दादा बच गये .ऐसा कई बार
हुआ और नई नई तरकीबों से दादा बचते गये ,सिर्फ अपने आप को बचाना उनके लिए बहुत ही आसान था .
लेकिन उनके कई आफिसरों को मार गिराने एवं कई आफिस जला डालने के बाद सरकार
का रूख बदल गया और दादा के करीबी
रिश्तेदारों को भी मार गिराने का आदेश दे दिया गया .
दादा ने पत्नी ,बच्चों को अपने
ससुराल भेज दिया एवं माँ को उनके मैके पहुँचवा दिया पर जब उनके ससुराल में भी पुलिस पहुँचने लगी तब दादी ने कहा “ जब मरना ही है तब अपने गाँव
में ही मरूँगी .”
मैंने दादा को नहीं देखा है मगर
उनके किस्से इतनी बार इतने लोगों से सुना है कि विश्वास ही नहीं होता कि मैंने उन्हें
नहीं देखा है .दादी को देखा है कई बार, कई
कई रूपों में , बड़ी ही निर्भीक .किसी के सामने नहीं दबने वाली ,कर्मठ,पर उनके डर, आतंक, दशहत को भी देखा है .एक बार की घटना ज्यों की त्यों याद है .हुआ यों कि पापा के एक बचपन के दोस्त
बड़े पुलिस अफसर बन गये थे एवं उनका तबादला हमारे शहर हो गया .एक शाम वे पापा से
मिलने आ गये .गलती उनसे बस इतनी सी हो गई कि वे वर्दी में ही आ गये . दादी ने
उन्हें देखा डरकर भागकर अंदर चली आईं मुझपर नजर पड़ते ही पागलों की भाँति मुझे अंदर
घसीटने लगीं .पूछने लगी “ ये यहाँ क्यों आया है ?” जब बात
मेरी समझ में आई तब मैंने उन्हें शांत करने की कोशिश करते हुए कहा “ पापा के दोस्त हैं दादी ये बहुत अच्छे है
अंग्रेज नहीं हैं ये अपने हिन्दुस्तान के हैं .” ऐसा नहीं कि दादी समझ नहीं रही थी सब कुछ समझ
रही थी पर फिर भी एक आतंक था जो वे थर थर
काँप रही थीं “ ये भी न किस किस से दोस्ती कर लेता है .” पापा को अंकल
से माफ़ी मांगनी पड़ी.अंकल फिर कई बार आये पर वर्दी में नहीं ,उन्होंने दादी को विश्वास दिलाया कि ये वर्दी उनके अपने
हिंदुस्तान सरकार की है जो लोगों की हिफाजत के लिए है और तब एक दिन वे वर्दी में
आये .
दादी ने उस वर्दी को छुआ “ये भारत
सरकार की है ? अपनी सरकार की है ? भारतीयों की रक्षा के लिए है ?” और तब
उन्होंने कई आशीषें दी अंकल को और जाते समय फुसफुसाकर कहा अंकल के कान के पास अपने
मुंह ले जाकर “आगे से सादे लिबास में ही आना .सब कुछ जानते समझते हुए भी मुझे
वर्दी वालों से दशहत लगता है , ये उन दिनों की याद दिलाता है और सब कुछ जैसे आँखों
के सामने आ जाता है . अग्नि देवता का
तांडव नृत्य ,पूरे घर को लील कर लेना और उस तांडव को छुप छुप कर देखना ,अपनी जान
बचाने के लिए पूस की रात में रात भर पानी में रहना .
दशहत तो होगी ही जिसके पूरे घर को उन वर्दी वालों ने ज्वलंत पदार्थ डालकर जला कर
स्वाहा कर दिया हो . उस रात अंग्रेजों को विश्वास हो गया था कि दादा जी घर पर ही
हैं सो उनके बड़े अफसर ने पूरे घर को जला देने की आज्ञा दे दी थी .इस समय तक दादा
जी को पकड़ने के लिए दो हजार का इनाम भी रख दिया
गया था .दादा जी तो घर पर नहीं थे ,किसी बड़े साजिश को अंजाम देने की योजना
बनाने के लिए पटना गये थे
,पर जब दादी ने देखा कि आग की लपटें पूरे घर को लील जाने के लिए मचल रही है तब
जल्दी जल्दी पीछे के गुप्त दरवाजे से दोनों बच्चो को लेकर निकल गई .
पापा को उन्होंने चहारदीवारी के
माध्यम से पड़ोसी के घर उछालकर फेंक दिया और ताऊजी को भी चहारदीवारी लाँघकर उस ओर
चले जाने को कहा ,स्वयं बचने का कोई उपाय न देखकर तालाब में कूद गई .कई अंग्रेज
पानी में छपाक की आवाज सुनकर दादी को पकड़ने आये किन्तु उस तालाब का पानी गन्दा एवं काफी ठंढा था जिसके कारण उसमे घुसने की हिम्मत नहीं कर पाए .यह
तालाब गाँव के लगभग बाहर था जो इस्तेमाल में नहीं था और इसके चारों ओर कई गाँव थे
. दादी रात भर छुपती रही सुबह दूसरे गाँव के लोगों ने उन्हें बेहोश पाया . वैद्य
को बुलवाया गया . होश में आने पर उन्हें बच्चों की चिंता हुई “ पता नहीं वे जिन्दा
भी हैं या ....”
उन्हें अपने गाँव लाया गया . पड़ोसी के घर के पास आते ही उन्हे पापा दिख गये
“निर्विकार खेल में मग्न ,बचपन भी क्या चीज होती है ?” किसी भलमानुस ने उन्हें झूठी दिलासा दे दी
थी और पापा एवं ताऊ निश्चिन्त हो गये थे .
दादी की नजरें ताऊ को खोज रही थी
पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी पर जब सब्र का बाँध टूट गया तब उन्होंने पूछा
.सभी लोगों ने बताया कि वह ठीक है यहीं कहीं खेल रहा होगा .दादी को लेकिन तसल्ली नहीं
हुई उन्हें लगा कि वे उनसे कुछ छुपा रहे हैं .उन्होंने न कुछ खाया न पिया
जब उन्हें पक्का विश्वास हो गया कि ताऊ जी को कुछ हो गया तब ताऊ जी अपने दोस्तों
के साथ आये .दरअसल गाँव में कोई जादू वाला आया था और ताऊ जी अपने को रोक नहीं पाए
थे .
दादी उठीं और लगीं उन्हें तड़ातड़ पीटने
.किसी की समझ में नहीं आया कि अचानक दादी को
हो क्या गया ? लोगों को लगा शायद
उनका मानसिक संतुलन बिगड़ गया है .कहते हैं
कि उस दिन से नौ वर्ष की आयु से ही
ताऊ जी अचानक बड़े हो गये और घर के
बड़े बेटे होने की पूरी जिम्मेदारी निष्ठा से निभाने लगे ,खेल तमाशे सब पीछे छूट गये .बचपन बहुत पीछे छूट गया .किस्मत भी
क्या चीज होती है ? पहले माता और छोटे भाई की जिम्मेदारी फिर अपने परिवार की और उन्ही
का निर्वाह करते करते बहुत ही कम उम्र में वे एक दिन इस दुनिया से चले गये ,ताजुब्ब होता
है उसके बाद भी किसी का कोई काम उनके लिए रुका नहीं ,सभी की जिन्दगी ज्यों को
त्यों चलती रही सिर्फ ताई के मुख की रौनक
जो गई तो लाख कोशिश के बाद भी कभी भी कोई भी उसे वापस नहीं लौटा पाया .
दादी थोड़ी देर में शांत हो गई ,उन्हें
पड़ोस के घर में ही एक कमरा दे दिया गया ,कहते हैं अपने घर के खंडहर के पास
जाकर बड़ी देर रोती रहीं थी .कहते है दादी एवं बच्चों को बचाने के लिए पूरे गाँव ने
एक तरह के चक्रव्यूह का निर्माण किया था ताकि उनतक कोई पहुँच ही न सके .काश मैं भी
ऐसे गाँव को उस समय देखती , अब तो .......
सोचती हूँ एक जूनून था ,एक सपना था
,कुछ कर गुजरने की ख्वाहिस थी ,अब कहाँ गया वह जूनून ? देश वही
है ,लोग वही हैं ,देश खुशहाल भी
नहीं है , फिर देश को आगे बढाने की ,देश पर मर मिटने वालों की ,मर
मिटने वालों के लिए कुछ करने का जूनून क्यों नहीं है ? कहाँ गये “ पुष्प की अभिलाषा ” जैसी कविता
लिखने वाले कवि ? देश के लिए सच्चे मन से काम करने वाले गाँघी ,नेहरू या भगत सिंह जैसे नेता ?
क्या स्वतन्त्रता प्राप्ति ही
एकमात्र मकसद हो सकता है ? क्या फिर जब तक देश परतंत्र नहीं हो जाएगा तब तक ऐसा ही
चलता रहेगा ? झूठ , फरेब , मक्कारी ,देश के खजाने को लूट लूट कर अपना बना लेने की
होड़ ? षडयंत्र ? क्या इसी सब के लिए हमारे
पूर्वजों ने इतना बलिदान दिया ?इतना झेला था ?
हमारे गाँव के लोग ,घर के लोग इस
बात से काफी दुखी हैं कि “ श्री पंडित रूपधर झा
” अपनी आँखों से देश की आजादी नहीं देख पाए ,आजादी का जश्न नहीं मना पाए
,लेकिन मैं इस बात से काफी खुश हूँ .अच्छा हुआ नहीं देखा , देखने पर कैसा
लगता उन्हें ? कितनी तकलीफ होती उन्हें ?
किम्कर्तव्यबिमूढ़ हो जाते वे .
क्योंकि पहले विरोध करना कितना आसान था क्योंकि वे दूसरे थे जो हमपर
अत्याचार करते थे .अब वे किन पर बंदूक दागते
? कौन सा आफिस उड़ाते ? किन पर बम फेंकते ? कौन सा खजाना लूटते ? अतः अच्छा हुआ
नहीं देखा . अपने बलिदान की ऐसी तौहीन
देखकर जीते जी मर जाते वे सभी लोग जिनके
अकथ परिश्रम से हमें यह दिन देखने को मिला है .उनमें से शायद आज तो कोई नहीं है पर
मेरी जेहन में बार बार एक सवाल आता है झंडा तो उपर हो गया पर हम क्यों नीचे गिरते
जा रहे हैं ?
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